बुधवार, 13 अगस्त 2025

 

द्वैत से द्वैतवाद का अध्ययन एक समग्र विश्लेषण

Study of Dualism from Dvaita – A Comprehensive Analysis

 


भारतीय दर्शन की धारा अत्यंत व्यापक और गहन है। इसमें अनेक दार्शनिक विचारधाराएँ, साधना पद्धतियाँ और जीवन-दृष्टियाँ विकसित हुई हैं। इनमें से द्वैतवाद एक प्रमुख दार्शनिक परंपरा है, जो यह मानती है कि ईश्वर (परमात्मा) और जीव (आत्मा) सदा अलग-अलग हैं और उनका भेद कभी समाप्त नहीं होता।
द्वैतका सामान्य अर्थ है दो या द्विभाव। दर्शन में यह विचार इस तथ्य को रेखांकित करता है कि सृष्टि में दो मूल सत्ता हैं:

1.      परमात्मासर्वशक्तिमान, अनंत, सर्वज्ञ।

2.      जीवात्मासीमित, बंधनग्रस्त, किन्तु चेतन सत्ता।

द्वैतवाद विशेष रूप से मध्वाचार्य द्वारा प्रतिपादित द्वैत वेदांत के रूप में प्रसिद्ध है। यह केवल दार्शनिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक मार्ग भी है, जो भक्ति, श्रद्धा और ईश्वर-निर्भरता पर आधारित है।

द्वैत का अर्थ

द्वैतसंस्कृत शब्द द्व” (दो) और इत” (भाव) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है दो का भाव या दो का अस्तित्व

·         दार्शनिक दृष्टि से, द्वैत का आशय है सृष्टि में कम से कम दो मूलभूत तत्वों का होना, जो एक-दूसरे से भिन्न और स्वतंत्र हैं।

·         यह भिन्नता स्थायी है, अर्थात समय, स्थान या स्थिति के किसी भी परिवर्तन से समाप्त नहीं होती।

द्वैतवाद की परिभाषा

विभिन्न विद्वानों ने द्वैतवाद को अलग-अलग रूप में परिभाषित किया है:

1.      मध्वाचार्य:

ईश्वर और जीव का भेद वास्तविक और शाश्वत है, जिसे केवल ईश्वर की कृपा से ही समझा जा सकता है।

2.      डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन:

द्वैतवाद वह मत है जो ईश्वर और आत्मा, आत्मा और पदार्थ के बीच स्थायी अंतर को स्वीकार करता है।

3.      सरल परिभाषा:

द्वैतवाद वह दार्शनिक दृष्टिकोण है जिसमें ईश्वर और जीव, जीव और प्रकृति, तथा विभिन्न जीवों और पदार्थों के बीच वास्तविक और अनादि भिन्नता मानी जाती है।

द्वैतवाद का ऐतिहासिक विकास

1 वैदिक काल में द्वैत का बीज

ऋग्वेद और यजुर्वेद में ईश्वर और जीव के भिन्न कार्यों एवं गुणों का वर्णन मिलता है।
उदाहरण: कठोपनिषद में आत्मा और परमात्मा की तुलना दो पक्षियों से की गई है

·         एक पक्षी पेड़ के फल का आस्वाद करता है (जीव)

·         दूसरा पक्षी केवल देखता है (ईश्वर)

2 महाभारत और भगवद्गीता में द्वैत

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण बार-बार जीव और ईश्वर के अलग अस्तित्व की पुष्टि करते हैं:

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः
(जीव मेरा अंश है, पर मुझसे अलग भी है।)

3 माध्वाचार्य का योगदान

13वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने द्वैत वेदांत का व्यवस्थित प्रतिपादन किया।
उन्होंने पंचभेदका सिद्धांत दिया

1.      ईश्वर और जीव में भेद

2.      ईश्वर और प्रकृति में भेद

3.      जीव और प्रकृति में भेद

4.      एक जीव और दूसरे जीव में भेद

5.      एक जड़ वस्तु और दूसरी जड़ वस्तु में भेद

द्वैतवाद का स्वरूप

1 दार्शनिक स्वरूप

·         सत्ता का द्विभाव: सृष्टि में चेतन (जीव) और अचेतन (प्रकृति) तत्व हैं।

·         ईश्वर की स्वतंत्रता: ईश्वर अनादि, स्वतंत्र और सृष्टि का कर्ता है।

·         जीव की परतंत्रता: जीव सीमित, कर्मफल भोगने वाला और ईश्वर पर निर्भर है।

2 धार्मिक स्वरूप

·         भक्ति प्रधान मार्ग: मोक्ष पाने के लिए ईश्वर की भक्ति आवश्यक है।

·         ईश्वर-सेवक संबंध: ईश्वर स्वामी है और जीव सेवक।

3 नैतिक स्वरूप

·         ईश्वर को साक्षी मानकर नैतिक जीवन जीना।

·         कर्मफल के सिद्धांत को स्वीकार करना।

 द्वैतवाद का महत्व

1 आध्यात्मिक महत्व

·         भक्ति की आधारशिला: द्वैतवाद भक्ति को मोक्ष का मुख्य साधन मानता है।

·         ईश्वर-निर्भरता: यह जीवन में विनम्रता और श्रद्धा उत्पन्न करता है।

2 नैतिक महत्व

·         अच्छे कर्म की प्रेरणा: ईश्वर को साक्षी मानकर व्यक्ति गलत कामों से बचता है।

·         सेवा भाव: दूसरों की सेवा को ईश्वर की सेवा मानने का दृष्टिकोण।

3 सामाजिक महत्व

·         धार्मिक एकता: भक्ति आंदोलन के माध्यम से समाज को जोड़ा।

·         समानता का भाव: भक्ति में जाति-पाँति का भेद नहीं।

4 दार्शनिक महत्व

·         अद्वैतवाद और अन्य मतों को संतुलित दृष्टिकोण देना।

·         ईश्वर और जीव के संबंध को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना।

 द्वैतवाद के उदाहरण

1.      रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतयद्यपि उनका मत अद्वैत से जुड़ा है, फिर भी जीव और ईश्वर में भेद स्वीकार करता है।

2.      भगवद्भक्ति आंदोलनमीरा, सूर, तुलसी आदि संतों की कविताओं में जीव-ईश्वर भेद स्पष्ट दिखता है।

3.      मध्वाचार्य का उपदेश – “श्रीहरि ही एकमात्र स्वामी हैका उद्घोष।

द्वैतवाद की आलोचना

1.      अद्वैत वेदांत की दृष्टि सेभेद मायिक है, वास्तविक नहीं।

2.      दार्शनिक प्रश्नयदि ईश्वर और जीव अलग हैं, तो ईश्वर का सर्वव्यापक होना कैसे संभव है?

3.      ज्ञानमार्ग का अभावकेवल भक्ति पर जोर, ज्ञान की अपेक्षा कम।

 द्वैतवाद को केवल एक दार्शनिक सिद्धांत के रूप में देखना इसकी गहराई को कम आंकना होगा। यह वास्तव में एक जीवन-पद्धति है, जिसमें:

·         भक्ति साधना को केंद्र में रखा गया है।

·         ईश्वर-निर्भर जीवन को श्रेष्ठ माना गया है।

·         जीव और ईश्वर के संबंध को सेवक और स्वामी के रूप में परिभाषित किया गया है।

समकालीन प्रासंगिकता: आज भी द्वैतवाद लोगों को मानसिक शांति और नैतिक मार्गदर्शन देता है। आधुनिक जीवन में तनाव और प्रतिस्पर्धा के बीच यह दर्शन यह संदेश देता है कि: हम सीमित हैं, पर ईश्वर असीम है उसकी शरण में जाने से ही सच्चा सुख और मुक्ति मिलती है।द्वैतवाद भारतीय दर्शन का एक ऐसा आधारस्तंभ है, जो भक्ति, नैतिकता और ईश्वर-निर्भरता को जोड़ता है। यह केवल भेद की बात नहीं करता, बल्कि उस भेद के कारण उत्पन्न भक्ति, विनम्रता और सेवा भाव को जीवन का लक्ष्य मानता है। मध्वाचार्य का पंचभेद सिद्धांत आज भी दर्शन, धर्म और समाज में उतना ही प्रासंगिक है जितना सदियों पहले था।

द्वैत से द्वैतवाद की यह यात्रा यह सिखाती है कि

·         भिन्नता में भी समरसता हो सकती है।

·         भक्ति ही मनुष्य के जीवन को पूर्ण बना सकती है।

·         ईश्वर की कृपा के बिना मुक्ति असंभव है।

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