मंगलवार, 19 अगस्त 2025

अद्वैतवाद: एक दार्शनिक एवं सामाजिक अध्ययन Monism: A Philosophical and Social Study

 अद्वैतवाद: एक दार्शनिक एवं सामाजिक अध्ययन

Monism: A Philosophical and Social Study

 


सारांश

भारतीय दर्शन के विविध आयामों में अद्वैतवाद (Advaita Vedanta) का विशेष स्थान है। यह वेदान्त दर्शन की एक महत्वपूर्ण शाखा है, जिसका मूल आधार उपनिषदों में निहित है। आदि शंकराचार्य ने इसे 8वीं शताब्दी में पुनः स्थापित कर जीवन, जगत और ब्रह्म के संबंध को स्पष्ट किया। अद्वैतवाद का मूल सिद्धांत है कि ब्रह्म ही परम सत्य है, जगत माया है और जीव वास्तव में ब्रह्म ही है। प्रस्तुत शोध-पत्र में अद्वैतवाद की उत्पत्ति, परिभाषा, प्रमुख सिद्धांत, अन्य वेदांत मतों से तुलना, सामाजिक एवं धार्मिक महत्व तथा आधुनिक परिप्रेक्ष्य का विश्लेषण किया गया है। निष्कर्षतः अद्वैतवाद न केवल दार्शनिक दृष्टि से गहन है बल्कि सामाजिक समानता और सार्वभौमिक एकता का भी सशक्त आधार है ।

मुख्य शब्द (Keywords): अद्वैतवाद, वेदान्त, शंकराचार्य, ब्रह्म, आत्मा, माया, मोक्ष।

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भारतीय दर्शन का इतिहास गहन और बहुआयामी है। इसमें वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रंथ और आचार्यों की परंपरा ने जीवन और जगत की व्याख्या विभिन्न दृष्टियों से की है। अद्वैतवाद इस परंपरा की एक प्रमुख धारा है, जो आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करती है। "अहं ब्रह्मास्मि" और "तत्त्वमसि" जैसे उपनिषद्-वाक्यों पर आधारित यह दर्शन आज भी प्रासंगिक है।

अद्वैतवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

1. वैदिक युग और उपनिषदों में अद्वैत का बीज

अद्वैतवाद का मूल स्रोत वेद और विशेषकर उपनिषद् हैं ।

  • वेदों में ब्रह्म, आत्मा और जगत की व्याख्या अनेक स्थलों पर की गई है ।
  • ऋग्वेद का प्रसिद्ध कथन एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति (सत्य एक है, ज्ञानी उसे अनेक रूपों में कहते हैं) अद्वैत का आधारभूत सूत्र है।
  • उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता पर गहन विचार हुआ ।

Ø छांदोग्य उपनिषद् का तत्त्वमसि” (तू वही है)

Ø बृहदारण्यक उपनिषद् का अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ)

Ø माण्डूक्य उपनिषद् का अयमात्मा ब्रह्म” (यह आत्मा ही ब्रह्म है)
ये वाक्य अद्वैत की दार्शनिक नींव हैं।

अतः वैदिक और उपनिषदिक काल में अद्वैतवाद बीज रूप में विद्यमान था।

2. ब्रह्मसूत्र और बादरायण

अद्वैत दर्शन को व्यवस्थित रूप देने का प्रयास बादरायण (वेदव्यास) ने किया।

  • उनका ग्रंथ ब्रह्मसूत्र (वेदान्त सूत्र), अद्वैत सहित सम्पूर्ण वेदान्त का दार्शनिक आधार माना जाता है।
  • ब्रह्मसूत्र का उद्देश्य उपनिषदों में विखरे हुए विचारों को एक सूत्रबद्ध रूप में प्रस्तुत करना था।
  • हालांकि ब्रह्मसूत्र की व्याख्या विभिन्न आचार्यों ने अलग-अलग ढंग से की, परंतु शंकराचार्य ने इसकी अद्वैतात्मक व्याख्या प्रस्तुत कर इसे अद्वैत दर्शन का आधार ग्रंथ बना दिया।

3. उपवेदान्त आचार्य और पूर्व-शंकर परंपरा

           शंकराचार्य से पहले भी कई दार्शनिकों ने वेदान्त की व्याख्या की थी।

  • गौड़पादाचार्य (7वीं शताब्दी) को अद्वैतवाद का प्राचीन प्रवर्तक माना जाता है। उनका माण्डूक्य कारिका अद्वैत की सबसे प्राचीन और व्यवस्थित रचना है। इसमें उन्होंने कहा कि संसार स्वप्न के समान है और केवल ब्रह्म ही सत्य है।
  • गौड़पादाचार्य, शंकराचार्य के परमहंस-गुरु गोविंदपादाचार्य के गुरु थे। इस प्रकार शंकराचार्य सीधे गौड़पाद की परंपरा से जुड़े।

       गौड़पाद के विचारों में बौद्ध दर्शन की "अद्वयता" (न द्वैत) का प्रभाव दिखता है, किंतु उन्होंने उपनिषद् पर आधारित    

      अद्वैत को अधिक महत्त्व दिया।

4. आदि शंकराचार्य और अद्वैतवाद का सुव्यवस्थित स्वरूप

     अद्वैतवाद का वास्तविक, प्रामाणिक और तार्किक स्वरूप आदि शंकराचार्य (788–820 ई.) ने प्रस्तुत किया।

  • शंकराचार्य का जन्म केरल (कालडी) में हुआ और उन्होंने कम आयु में ही संन्यास ले लिया।
  • उन्होंने पूरे भारत में यात्राएँ कर विभिन्न मठों और विद्वानों से दार्शनिक शास्त्रार्थ किए।
  • शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और उपनिषदों पर अद्वैतवादी भाष्य लिखे।
  • उनका प्रसिद्ध सूत्र है
    ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
  • शंकराचार्य ने माया, अविद्या और ज्ञानयोग को अद्वैत के मुख्य स्तंभ के रूप में स्थापित किया।

शंकराचार्य के प्रयासों से अद्वैत केवल दार्शनिक विचारधारा नहीं रहा, बल्कि एक व्यवस्थित धार्मिक और आध्यात्मिक आंदोलन बन गया।

5. शंकरोत्तर परंपरा और आचार्य

शंकराचार्य के पश्चात् उनके शिष्यों और अनुयायियों ने अद्वैतवाद को आगे बढ़ाया।

  • सुरेश्वराचार्यशंकराचार्य के प्रत्यक्ष शिष्य, जिन्होंने अद्वैत पर अनेक ग्रंथ लिखे।
  • पद्मपादाचार्यशंकराचार्य के शिष्य, जिन्होंने पंचपादिका नामक भाष्य लिखा।
  • वाचस्पति मिश्र – 9वीं शताब्दी में अद्वैत और अन्य दर्शनों का समन्वय किया।
  • मांडन मिश्रकर्म और ज्ञान के संबंध पर गहन विवेचन किया।
  • मधुसूदन सरस्वती (16वीं शताब्दी)अद्वैतवाद के महान विद्वान, जिनकी रचना अद्वैतसिद्धि प्रसिद्ध है।

इन आचार्यों के प्रयास से अद्वैतवाद केवल दार्शनिक नहीं रहा, बल्कि एक सुदृढ़ संप्रदाय और परंपरा बन गया।

6. अद्वैत और मध्यकालीन भारतीय समाज

मध्यकालीन भारत में अद्वैतवाद का प्रभाव संत परंपरा और भक्ति आंदोलन पर भी पड़ा।

  • कबीर, तुलसीदास, मीरा आदि संतों की वाणी में "अद्वैत चेतना" के दर्शन मिलते हैं।
  • सूफी संतों की विचारधारा में भी आत्मा और परमात्मा की एकता पर बल दिया गया, जो अद्वैत से साम्य रखती है।
  • इस काल में अद्वैत ने सामाजिक समरसता और धार्मिक सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा दिया।

7. आधुनिक युग में अद्वैतवाद

19वीं और 20वीं शताब्दी में अद्वैतवाद को नए रूप में प्रस्तुत किया गया।

  • स्वामी विवेकानंद ने अद्वैत को विश्व-पटल पर प्रचारित किया। उन्होंने कहा
    अद्वैत वेदान्त ही मानवता के उद्धार का मार्ग है, क्योंकि यह सबको एक मानता है।
  • महात्मा गांधी ने अद्वैत से अहिंसा और समानता का संदेश लिया।
  • श्री अरविंद और रमण महर्षि ने अद्वैत को साधना और ध्यान की परंपरा से जोड़ा।
  • आज भी आधुनिक विज्ञान (विशेषकर क्वांटम फिजिक्स और चेतना-अध्ययन) अद्वैतवाद के सिद्धांतों से प्रेरणा ले रहा है।

अद्वैतवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यह स्पष्ट करती है कि यह कोई अचानक उत्पन्न हुआ दर्शन नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें वेद और उपनिषदों में गहराई तक समाई हुई हैं।

  • उपनिषदों ने इसके बीज बोए,
  • ब्रह्मसूत्र ने उसे सूत्रबद्ध किया,
  • गौड़पादाचार्य ने प्रारंभिक स्वरूप दिया,
  • शंकराचार्य ने उसे संगठित, व्यवस्थित और दार्शनिक रूप प्रदान किया।

शंकराचार्य के बाद भी यह धारा निरंतर प्रवाहित होती रही और आधुनिक युग में भी यह विश्व स्तर पर प्रासंगिक बनी हुई है। इस प्रकार अद्वैतवाद केवल भारत की दार्शनिक धरोहर ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए आत्मिक एकता और शांति का मार्गदर्शक दर्शन है।

द्वैतवाद की परिभाषा और स्वरूप

1. अद्वैतवाद की परिभाषा

अद्वैतशब्द दो पदों से मिलकर बना है ’ + ‘द्वैत, अर्थात् द्वैत का अभाव या जिसका दूसरा कोई नहीं
दर्शनशास्त्र की दृष्टि से अद्वैत का तात्पर्य यह है कि सत्य केवल एक है, वही ब्रह्म है

शास्त्रीय परिभाषाएँ

1.      शंकराचार्य की परिभाषा:

Ø  ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
(ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है और जीव वास्तव में ब्रह्म ही है।)

2.      उपनिषद् आधारित परिभाषा:

Ø  छांदोग्य उपनिषद् – “तत्त्वमसि” (तू वही है)।

Ø  बृहदारण्यक उपनिषद् – “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ)।

Ø  माण्डूक्य उपनिषद् – “अयमात्मा ब्रह्म” (यह आत्मा ही ब्रह्म है)।

3.      दार्शनिक परिभाषा:

Ø  अद्वैतवाद के अनुसार आत्मा (जीव) और ब्रह्म (परमात्मा) में कोई भेद नहीं है। भेद का अनुभव केवल अविद्या (अज्ञान) और माया के कारण होता है। जब यह अविद्या दूर होती है, तो आत्मा और ब्रह्म की एकता का अनुभव होता है।

2. अद्वैतवाद का स्वरूप

अद्वैतवाद केवल एक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक संपूर्ण दर्शन है जिसमें तत्त्वमीमांसा (Metaphysics), ज्ञानमीमांसा (Epistemology) और मोक्षमीमांसा (Soteriology) सम्मिलित हैं। इसके स्वरूप को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:

(क) ब्रह्म का स्वरूप

  • ब्रह्म निराकार, निर्विशेष, अनंत और चैतन्यमय है।
  • वह सच्चिदानंद स्वरूप (सत् + चित् + आनंद) है।
  • ब्रह्म न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, वह शाश्वत और सर्वव्यापी है।

(ख) आत्मा का स्वरूप

  • आत्मा और ब्रह्म अलग नहीं, बल्कि अभिन्न हैं।
  • आत्मा का सीमित रूप केवल अज्ञान की उपज है।
  • जब अज्ञान हट जाता है, तो आत्मा अपने ब्रह्मस्वरूप को पहचान लेती है।

(ग) जगत का स्वरूप

  • अद्वैतवाद के अनुसार जगत माया है।
  • यह न पूर्णतः सत्य है और न पूर्णतः असत्य, बल्कि अनिर्वचनीय’ (अवर्णनीय) है।
  • जगत केवल ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, जैसे स्वप्न या मृगमरीचिका।

(घ) माया और अविद्या

  • अद्वैत का केंद्रीय विचार है कि जीव का ब्रह्म से भिन्नता का अनुभव अविद्या (अज्ञान) के कारण होता है।
  • माया ब्रह्म की शक्ति है, जो बहुलता और भिन्नता का भ्रम उत्पन्न करती है।
  • जब आत्मा ज्ञान प्राप्त करती है, तब माया का आवरण हट जाता है।

(ङ) मोक्ष का स्वरूप

  • मोक्ष का अर्थ है आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता का अनुभव।
  • मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है ज्ञानयोग (आत्मबोध और ब्रह्मबोध)।
  • भक्ति, ध्यान और साधना ज्ञान की सहायक हैं, किंतु सर्वोच्च साधन ज्ञान है।

(च) व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्य

  • अद्वैतवाद में दो स्तर के सत्य माने गए हैं:

1.      व्यावहारिक सत्य (व्यवहारिक जगत का अनुभव)जैसे हम संसार को देखते और जीते हैं।

2.      पारमार्थिक सत्य (अंतिम सत्य)केवल ब्रह्म ही वास्तविक है।

  • यही कारण है कि अद्वैतवाद कहता है – “जगत

अद्वैतवाद के प्रमुख सिद्धांत

अद्वैत वेदान्त भारतीय दर्शन का वह स्वरूप है, जिसने आत्मा और ब्रह्म की अद्वैतता (अभिन्नता) को सर्वाधिक स्पष्ट और दार्शनिक रूप में प्रस्तुत किया। आदि शंकराचार्य ने उपनिषदों, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र के आधार पर अद्वैतवाद के सिद्धांतों को व्यवस्थित किया। इसके पाँच मूल सिद्धांतों को निम्न प्रकार विस्तार से समझा जा सकता है

1. ब्रह्म निराकार, निर्विशेष, अनंत और चैतन्यमय

अद्वैत वेदान्त का प्रथम और मुख्य सिद्धांत है ब्रह्म की सत्ता

  • ब्रह्म का स्वरूप:

Ø  उपनिषदों में ब्रह्म को सच्चिदानन्द (सत्चित्आनन्द) स्वरूप कहा गया है।

Ø  वह न जन्म लेता है, न मरता है, न परिवर्तनशील है।

Ø  वह निराकार (Formless), निर्विशेष (Attribute-less), अनंत (Infinite) और चैतन्यमय (Consciousness) है।

  • श्रुति प्रमाण:

Ø  तैत्तिरीय उपनिषद्: “सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म।

Ø  मुण्डक उपनिषद्: “यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णम्।

  • दार्शनिक दृष्टि:

Ø  अद्वैतवाद में केवल ब्रह्म ही वास्तविक सत्ता है।

Ø  शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म ही उपादान (Material cause) और निमित्त कारण (Efficient cause) दोनों है।

  • निष्कर्ष: समस्त जगत और आत्मा का अंतिम आधार ब्रह्म ही है।

2. आत्मा ब्रह्म का ही अंश नहीं, बल्कि वही ब्रह्म

अद्वैत वेदान्त का दूसरा मूल सिद्धांत है आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता।

  • आत्मा का स्वरूप:

Ø  आत्मा शुद्ध चेतन है, नित्य है, अविनाशी है।

Ø  आत्मा कोई अलग सत्ता नहीं, बल्कि ब्रह्म का ही प्रत्यक्ष रूप है।

  • श्रुति प्रमाण:

Ø  छांदोग्य उपनिषद्: “तत्त्वमसि श्वेतकेतो।

Ø  बृहदारण्यक उपनिषद्: “अहं ब्रह्मास्मि।

  • अविद्या का प्रभाव:

Ø  अज्ञान (अविद्या) के कारण जीव स्वयं को ब्रह्म से भिन्न मानता है।

Ø  आत्मा शरीर, मन, इंद्रिय और अहंकार से अपनी पहचान जोड़ लेती है।

  • ज्ञान का परिणाम:

Ø  जब ज्ञान का उदय होता है तो आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानती हैवह ब्रह्म ही है।

  • निष्कर्ष: जीव और ब्रह्म के बीच भिन्नता केवल अज्ञानजन्य है; वस्तुतः दोनों एक ही हैं।

3. जगत माया द्वारा निर्मित आभासी रूप

अद्वैत वेदान्त का तीसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है जगत का स्वरूप

  • माया की अवधारणा:

Ø  माया ब्रह्म की शक्ति है, जो बहुलता और भिन्नता का आभास उत्पन्न करती है।

Ø  माया का कार्य हैएक अद्वैत ब्रह्म को नाना रूपों में प्रकट करना।

  • जगत की वास्तविकता:

Ø  शंकराचार्य के अनुसार—“जगन्मिथ्या।

Ø  मिथ्या का अर्थ यह नहीं कि जगत अस्तित्वहीन है, बल्कि यह है कि जगत का स्वतंत्र और शाश्वत अस्तित्व नहीं है।

Ø  जगत केवल ब्रह्म पर आश्रित है।

  • उदाहरण:

Ø  जैसे रस्सी में अज्ञानवश साँप का भ्रम होता है, वैसे ही ब्रह्म में जगत का भ्रम होता है।

Ø  जैसे स्वप्न नींद के दौरान सत्य प्रतीत होता है पर जागने पर असत्य सिद्ध होता है, वैसे ही माया से उत्पन्न जगत प्रतीत होता है पर अंततः असत्य है।

  • निष्कर्ष: जगत न तो पूर्णत: सत्य है और न पूर्णत: असत्य, बल्कि अनिर्वचनीय’ (indescribable) है।

4. मोक्ष आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रत्यक्ष अनुभव

अद्वैतवाद का चौथा सिद्धांत है मोक्ष का स्वरूप

  • मोक्ष की परिभाषा:

Ø  मोक्ष का अर्थ हैआत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता का प्रत्यक्ष अनुभव।

Ø  यह संसार, जन्म-मृत्यु और दुःख के चक्र से मुक्ति है।

  • मोक्ष की अवस्था:

Ø  जब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानती है कि वह ब्रह्म है, तभी मोक्ष प्राप्त होता है।

Ø  मोक्ष का अनुभव ज्ञानजन्य है, न कि किसी कर्मजन्य।

  • श्रुति प्रमाण:

Ø  कठोपनिषद्: “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः।

  • जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति:

Ø  जीवन्मुक्ति: जीवन रहते ही जब आत्मा ब्रह्म की अनुभूति कर ले।

Ø  विदेहमुक्ति: शरीर त्यागने के बाद आत्मा का ब्रह्म में पूर्ण विलय।

  • निष्कर्ष:  मोक्ष अद्वैत दर्शन की अंतिम साध्य अवस्था है। यह आत्मज्ञान की परिणति है।

5. ज्ञान का महत्व केवल ज्ञानयोग ही मोक्ष का साधन

अद्वैत वेदान्त का पाँचवाँ सिद्धांत है ज्ञान की अनिवार्यता

  • ज्ञान की परिभाषा:

1.      आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रत्यक्ष अनुभव ही ज्ञान है।

    1. केवल शास्त्र-पठन या तर्क से नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभूति से ज्ञान की सिद्धि होती है।
  • ज्ञान के साधन (श्रवण, मनन, निदिध्यासन):

1.      श्रवणउपनिषदों और गुरु से अद्वैत सिद्धांत का सुनना।

2.      मननसुने हुए ज्ञान पर चिंतन और संशयों का समाधान।

3.      निदिध्यासनध्यान द्वारा उस ज्ञान का आत्मानुभव करना।

·         कर्म और भक्ति की भूमिका:

1.      कर्म और भक्ति अद्वैत में गौण साधन हैं।

2.      ये साधक के चित्तशुद्धि और मनःसंयम के लिए आवश्यक हैं, किंतु मोक्ष का साधन केवल ज्ञान है।

  • शंकराचार्य का दृष्टिकोण:

1.      ज्ञानं एव मोक्षसाधनम्।

2.      ज्ञान के बिना मुक्ति असंभव है।

  • निष्कर्ष: अद्वैत में ज्ञान ही अंतिम साधन और साध्य दोनों है।

अद्वैतवाद के ये पाँच प्रमुख सिद्धांत

1.      ब्रह्म की निराकार और अनंत सत्ता

2.      आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता

3.      जगत का माया-जन्य आभासी स्वरूप

4.      मोक्ष का आत्मा-ब्रह्म एकत्व अनुभव

5.      ज्ञान को मोक्ष का एकमात्र साधन मानना

अद्वैतवाद और अन्य वेदांत मतों की तुलना

भारतीय दर्शन में वेदांत को सर्वश्रेष्ठ और अंतिम सिद्धांत माना गया है। उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता इन तीन आधारग्रंथों पर वेदांत दर्शन की व्याख्या हुई है। किंतु इनकी व्याख्या भिन्न-भिन्न आचार्यों ने अपने दृष्टिकोण से की, जिससे वेदांत दर्शन के कई उप-मत बने। इनमें प्रमुख हैं अद्वैतवाद (शंकराचार्य), विशिष्टाद्वैत (रामानुजाचार्य) और द्वैतवाद (माध्वाचार्य)।

इन तीनों मतों का केंद्र बिंदु है जीव (आत्मा), ईश्वर (ब्रह्म) और जगत (विश्व) का आपसी संबंध। आइए इन्हें विस्तार से समझते हैं

1. अद्वैतवाद (शंकराचार्य)

  • मूल सिद्धांत:ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।
  • ब्रह्म निराकार, निर्विशेष और सच्चिदानंद स्वरूप है।
  • जीव और ब्रह्म के बीच कोई भिन्नता नहीं है। जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, भेद केवल अविद्या (अज्ञान) का परिणाम है।
  • जगत माया की उत्पत्ति है, जो न पूरी तरह सत्य है न असत्य, बल्कि अनिर्वचनीयहै।
  • मोक्ष का मार्ग केवल ज्ञान (ज्ञानयोग) है, जिसके द्वारा आत्मा अपनी वास्तविक ब्रह्म-स्वरूपता को पहचान लेती है।

2. विशिष्टाद्वैतवाद (रामानुजाचार्य)

  • मूल सिद्धांत:जीव ब्रह्म का अंश है, किंतु स्वतंत्र नहीं।
  • ईश्वर (नारायण/विष्णु) साकार, सर्वशक्तिमान और कृपालु है।
  • जीव और जगत दोनों ईश्वर की देह या उसके अंग समान हैं। जीव ब्रह्म से अलग होकर भी उससे अभिन्न रूप से जुड़ा है।
  • जगत वास्तविक है और ईश्वर की लीला का माध्यम है।
  • मोक्ष का साधन है भक्ति और ईश्वर की कृपा।
  • यहाँ ज्ञान की अपेक्षा भक्ति और पूर्ण शरणागति (प्रपत्ति) को अधिक महत्व दिया गया है।

3. द्वैतवाद (माध्वाचार्य)

  • मूल सिद्धांत:जीव और ईश्वर सदा भिन्न हैं।
  • ईश्वर (विष्णु) सर्वोच्च सत्ता है और जीव उसका शाश्वत सेवक है।
  • जीव, ईश्वर और जगत तीनों वास्तविक हैं, लेकिन ईश्वर से कभी एक नहीं हो सकते।
  • जीव अनेक प्रकार के हैं और उनमें भी श्रेष्ठता/हीनता का भेद माना गया है।
  • मोक्ष का साधन है भक्ति और ईश्वर की अनुग्रह।
  • यहाँ जगत को भी वास्तविक और सत्य माना गया है।

तुलनात्मक विश्लेषण

पक्ष

अद्वैतवाद (शंकराचार्य)

विशिष्टाद्वैत (रामानुजाचार्य)

द्वैतवाद (माध्वाचार्य)

ईश्वर/ब्रह्म

निराकार, निर्विशेष, सच्चिदानंद

साकार, सर्वशक्तिमान, अनंत गुणों से युक्त

साकार, विष्णु ही सर्वोच्च

जीव और ईश्वर का संबंध

जीव और ईश्वर पूर्णतः अभिन्न

जीव ईश्वर का अंश, अंग समान

जीव और ईश्वर सदा भिन्न

जगत का स्वरूप

माया से उत्पन्न, अनिर्वचनीय

ईश्वर की लीला का वास्तविक रूप

वास्तविक और शाश्वत

मोक्ष का मार्ग

ज्ञानयोग (आत्मबोध)

भक्ति और शरणागति

भक्ति और ईश्वर की कृपा

मोक्ष की स्थिति

आत्मा का ब्रह्म में लय, अद्वैत अनुभव

ईश्वर के साथ अखंड आनंदरूप स्थिति

ईश्वर के धाम में शाश्वत सेवा

प्रधान बल

ज्ञान

भक्ति + ईश्वरकृपा

भक्ति + ईश्वरकृपा


4. समन्वयात्मक दृष्टि

  • अद्वैतवाद आत्मा और ब्रह्म की पूर्ण अभिन्नता पर बल देता है।
  • विशिष्टाद्वैत आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता को स्वीकार करता है, किंतु उसमें भिन्नता का अंश भी मानता है।
  • द्वैतवाद आत्मा और ब्रह्म की पूर्ण भिन्नता पर बल देता है।

यदि इन तीनों मतों को एक क्रम में देखें तो यह स्पष्ट होता है कि

  • द्वैतवाद विशिष्टाद्वैत अद्वैतवादयह तीनों एक ही शाश्वत सत्य की अलग-अलग व्याख्याएँ हैं।
  • जहाँ द्वैतवाद भक्ति और ईश्वर की सर्वोच्चता को मानता है, वहीं अद्वैतवाद आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता का उद्घाटन करता है।
  • विशिष्टाद्वैत इन दोनों के बीच सेतु का कार्य करता है।

अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत और द्वैत तीनों वेदांत मत भारतीय दार्शनिक चिंतन की महान परंपरा को प्रकट करते हैं।

  • द्वैतवाद में भक्ति और ईश्वर-सेवा की महिमा है।
  • विशिष्टाद्वैत में ईश्वर और जीव का अभिन्न-अंश संबंध स्पष्ट होता है।
  • अद्वैतवाद में आत्मा और ब्रह्म की पूर्ण एकता का सर्वोच्च दार्शनिक सत्य प्रतिपादित है।

तीनों मिलकर वेदांत का समग्र और संतुलित स्वरूप प्रस्तुत करते हैं जहाँ साधक अपनी प्रवृत्ति और योग्यता के अनुसार किसी भी मार्ग से अंतिम सत्य की प्राप्ति कर सकता है।

अद्वैतवाद का सामाजिक एवं धार्मिक महत्व

भारतीय दर्शन में अद्वैत वेदांत केवल दार्शनिक तर्क या आध्यात्मिक अनुभूति का विषय नहीं है, बल्कि इसका सीधा प्रभाव समाज, धर्म और मानव जीवन की मूलभूत संरचना पर पड़ा है। शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद ने भारत में सामाजिक समानता, धार्मिक एकता और सार्वभौमिक बंधुत्व की नींव मजबूत की। इसके मूल में यह धारणा है कि सर्वं खल्विदं ब्रह्म अर्थात् सम्पूर्ण जगत और प्रत्येक जीवात्मा उसी ब्रह्म का ही स्वरूप है।

इस दृष्टि से अद्वैतवाद के सामाजिक और धार्मिक महत्व को निम्न बिंदुओं में समझा जा सकता है

1. जाति-पाति और भेदभाव का निषेध

  • अद्वैतवाद मानता है कि प्रत्येक जीवात्मा का स्वरूप एक ही है और वह ब्रह्म का ही अंश नहीं बल्कि वही ब्रह्म है।
  • जब आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है, तो किसी भी मनुष्य को ऊँच-नीच, जाति-पाति, वर्ण या सामाजिक स्तर के आधार पर विभाजित करना अनुचित है।
  • शंकराचार्य का दर्शन इस तथ्य को प्रतिपादित करता है कि सभी मनुष्य आत्मा-रूप से समान हैं; भेद केवल शरीर, जन्म, संस्कार और सामाजिक परंपराओं का है।
  • इस प्रकार यह दर्शन सामाजिक एकता और समानता की दिशा में अग्रसर करता है और भेदभाव की जड़ों को काटने का कार्य करता है।

2. सार्वभौमिक भ्रातृत्व और समानता का प्रतिपादन

  • अद्वैतवाद कहता है कि सम्पूर्ण सृष्टि एक ही परब्रह्म की अभिव्यक्ति है।
  • यह दृष्टिकोण मानवता के सार्वभौमिक भ्रातृत्व की भावना को पुष्ट करता है।
  • इससे यह बोध होता है कि सबमें एक ही आत्मा है, इसलिए किसी को शत्रु या पराया मानने का कोई कारण नहीं है।
  • समानता की यह भावना समाज में समरसता, सहयोग और परस्पर सम्मान का वातावरण बनाती है।
  • इस प्रकार अद्वैतवाद आधुनिक युग के लिए भी अत्यंत प्रासंगिक है, क्योंकि यह जातीय, धार्मिक और सांस्कृतिक विभेदों से ऊपर उठकर एकता का मार्ग दिखाता है।

3. धार्मिक संकीर्णताओं का निवारण

  • अद्वैत वेदांत धर्म के संकीर्ण स्वरूप को तोड़कर व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
  • यह कहता है कि सभी धर्म, सभी पूजा-पद्धतियाँ और सभी साधना-पथ अंततः उसी एक परम सत्य ब्रह्म की ओर ले जाते हैं।
  • एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” – सत्य एक है, किंतु ज्ञानीजन उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं यह वैदिक वाक्य अद्वैतवाद का आधार है।
  • इससे संप्रदायवाद, संकीर्णता और मतांधता का खंडन होता है।
  • अद्वैतवादी दृष्टिकोण मानवीय धर्म का आदर्श प्रस्तुत करता है, जहाँ किसी भी मत, पंथ या जाति को श्रेष्ठ या हीन नहीं माना जाता।

4. सामाजिक सुधार और आध्यात्मिक लोकतंत्र

  • अद्वैतवाद सामाजिक सुधार आंदोलनों का आधार रहा है।
  • कई संतों और महापुरुषों (जैसे कबीर, नानक, विवेकानंद आदि) ने अद्वैत की भावना से प्रेरणा लेकर समाज में समानता और भाईचारे का संदेश दिया।
  • यह दर्शन हर व्यक्ति को समान अधिकार देता है कि वह ब्रह्म का अनुभव कर सकता है। किसी विशेष जाति या वर्ग का ही आध्यात्मिक मोक्ष पर अधिकार नहीं है।
  • इस प्रकार अद्वैतवाद एक प्रकार का आध्यात्मिक लोकतंत्र स्थापित करता है।

5. धार्मिक सहिष्णुता और विश्व-बंधुत्व

  • अद्वैतवाद ने भारतीय समाज को धार्मिक सहिष्णुता का आधार दिया।
  • यह विचार कि सभी आत्माएँ एक ही सत्य में विलीन हैं”, व्यक्ति को द्वेष, वैमनस्य और संघर्ष से दूर करता है।
  • विश्व-बंधुत्व की यह भावना न केवल भारत के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करती है।

6. आधुनिक समाज में प्रासंगिकता

  • आज जब जातिवाद, धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता समाज को विभाजित कर रही है, अद्वैतवाद का दर्शन एकता का मार्ग दिखाता है।
  • यह व्यक्ति को यह समझने की प्रेरणा देता है कि बाहरी भेदभाव केवल अस्थायी है; वास्तविकता में हम सब एक ही सत्ता के अंश नहीं, बल्कि वही सत्ता हैं।
  • इसलिए यह दर्शन आधुनिक लोकतंत्र, मानवाधिकार और सामाजिक न्याय की अवधारणाओं के साथ गहरे रूप से मेल खाता है।

अद्वैतवाद केवल एक दार्शनिक मत न होकर सामाजिक समानता, धार्मिक सहिष्णुता और मानवता की एकता का आधार है।

  • यह जाति-पाति और भेदभाव को समाप्त करता है।
  • यह विश्व-बंधुत्व और सार्वभौमिक भ्रातृत्व की भावना जगाता है।
  • यह सभी धर्मों और संप्रदायों को एक ही सत्य की ओर ले जाने वाला मानकर धार्मिक संकीर्णताओं का अंत करता है।

इस प्रकार, अद्वैतवाद का महत्व केवल आध्यात्मिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज को न्यायपूर्ण, समानतामूलक और मानवतावादी दिशा देने वाला दर्शन है।

1. स्वामी विवेकानंद द्वारा अद्वैत का आधुनिक प्रस्तुतीकरण

  • स्वामी विवेकानंद ने अद्वैतवाद को पश्चिमी जगत तक पहुँचाया और इसे आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ जोड़ा।
  • उन्होंने कहा कि अद्वैत केवल धर्म या दर्शन नहीं है, बल्कि यह मानवता का सार्वभौमिक सत्य है।
  • विवेकानंद के अनुसार – “अद्वैत वेदांत ने संसार को यह सिखाया कि प्रत्येक आत्मा दिव्य है, प्रत्येक जीव ईश्वर का ही स्वरूप है।
  • उन्होंने जाति-पाति, ऊँच-नीच और धार्मिक संकीर्णताओं का विरोध करते हुए अद्वैत को सामाजिक समानता और आत्मविश्वास का आधार बनाया।
  • उनके विचारों ने आधुनिक भारत के राष्ट्रीय आंदोलन और सामाजिक सुधारों को गहरा बल दिया।

2. महात्मा गांधी, श्री अरविंद और रमण महर्षि पर अद्वैत का प्रभाव

(क) महात्मा गांधी

  • गांधीजी ने अद्वैत के सर्वात्मभावको अपने जीवन और राजनीति में अपनाया।
  • सत्य और अहिंसा का उनका दर्शन अद्वैत की इसी भावना पर आधारित था कि सभी आत्माएँ एक ही ब्रह्म स्वरूप हैं, अतः किसी पर हिंसा नहीं होनी चाहिए।
  • उनके लिए अद्वैत का अर्थ था – “ईश्वर और मानवता की एकता का अनुभव।

(ख) श्री अरविंद

  • श्री अरविंद ने अद्वैत दर्शन को समग्र योग के रूप में प्रस्तुत किया।
  • उन्होंने आत्मा और ब्रह्म की एकता को केवल व्यक्तिगत मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि मानवता के उत्कर्ष और विश्व-कल्याण का साधन माना।
  • उनके दर्शन में अद्वैतवाद एक गतिशील प्रक्रिया बन जाता है, जिसमें मानव जीवन का आध्यात्मिक उत्कर्ष और सामाजिक परिवर्तन निहित है।

(ग) रमण महर्षि

  • रमण महर्षि ने आत्म-विचार” (Who am I?) के साधन के माध्यम से अद्वैत अनुभव को सरल और व्यावहारिक बनाया।
  • उनका कहना था कि आत्मा और ब्रह्म अलग नहीं हैं; बस अज्ञान के कारण व्यक्ति स्वयं को शरीर-मन मान लेता है।
  • आत्म-विचार की साधना से यह भ्रम दूर होता है और जीव अपने ब्रह्मरूप स्वरूप का अनुभव करता है।

3. आधुनिक विज्ञान और अद्वैतवाद

(क) क्वांटम फिजिक्स और अद्वैत

  • आधुनिक भौतिकी, विशेषकर क्वांटम मैकेनिक्स, ने यह दिखाया है कि जगत वस्तुतः परमाणु कणों की निश्चित ठोस वास्तविकता नहीं, बल्कि ऊर्जा-तरंगों और संभावनाओं का जाल है।
  • यह दृष्टिकोण अद्वैत के इस सिद्धांत से मेल खाता है कि जगत माया का आभासी रूप है और अंतिम सत्य एक ही है।
  • कई वैज्ञानिकों (जैसे एर्विन श्रोडिंगर, डेविड बोह्म) ने अद्वैत वेदांत को अपनी वैज्ञानिक खोजों के साथ सामंजस्यपूर्ण पाया।

(ख) चेतना-अध्ययन और अद्वैत

  • आधुनिक न्यूरोसाइंस और कॉन्शसनेस स्टडीज़ (Consciousness Studies) यह मानने लगे हैं कि चेतना केवल मस्तिष्क की उपज नहीं, बल्कि ब्रह्मांड का मूल तत्व हो सकती है।
  • यह अद्वैत के इस कथन से मेल खाता है कि ब्रह्म चैतन्यमय है और आत्मा उसका ही स्वरूप है।
  • पश्चिमी मनोविज्ञान, विशेषकर ट्रान्सपर्सनल साइकोलॉजी, अद्वैत को आत्म-परिवर्तन और आध्यात्मिक अनुभवों की व्याख्या के लिए महत्वपूर्ण आधार मानती है।

4. वैश्विक स्तर पर अद्वैत का प्रभाव

  • आज अद्वैतवाद केवल भारत तक सीमित नहीं है; यह विश्वभर के दार्शनिकों, योगाचार्यों, मनोवैज्ञानिकों और वैज्ञानिकों को प्रभावित कर रहा है।
  • माइंडफुलनेस, ध्यान (Meditation), और योग जैसी आधुनिक आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ अद्वैत की ही व्यावहारिक अभिव्यक्तियाँ हैं।
  • अद्वैतवाद आधुनिक युग की समस्याओं जैसे जातीय संघर्ष, धार्मिक कट्टरता, पर्यावरण संकट और मानसिक तनाव के समाधान में एक एकात्म दृष्टि प्रदान करता है।

आधुनिक संदर्भ में अद्वैतवाद

  • स्वामी विवेकानंद के माध्यम से सामाजिक समानता और आत्मविश्वास का आधार बना।
  • महात्मा गांधी, श्री अरविंद और रमण महर्षि ने इसे अपने-अपने जीवन और दर्शन में आत्मसात किया।
  • आधुनिक विज्ञान, विशेषकर क्वांटम फिजिक्स और चेतना-अध्ययन, ने अद्वैत के सिद्धांतों से गहरी समानता अनुभव की।

इस प्रकार, अद्वैतवाद केवल प्राचीन भारतीय दर्शन नहीं है, बल्कि आधुनिक समाज, विज्ञान और आध्यात्मिकता के लिए भी मार्गदर्शक सिद्धांत है। यह हमें यह सिखाता है कि समस्त अस्तित्व एक ही है और उसी की अनुभूति ही शांति, समानता और विश्व-बंधुत्व का आधार है।Bottom of FormBottom of Form

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अद्वैतवाद का आलोचनात्मक मूल्यांकन

अद्वैत वेदांत भारतीय दर्शन का अत्यंत गूढ़ और प्रभावशाली मत है। शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित यह दर्शन जहाँ एक ओर मानवता को आध्यात्मिक गहराई और एकता का बोध कराता है, वहीं दूसरी ओर इसके कुछ बिंदुओं को लेकर दार्शनिक और सामाजिक स्तर पर आलोचना भी हुई है।

1. सकारात्मक पक्ष

(क) मानवता में एकता और समरसता का संदेश

  • अद्वैत का सबसे बड़ा योगदान यह है कि यह समस्त प्राणियों को एक ही ब्रह्म स्वरूप मानता है।
  • इससे जाति-पाति, ऊँच-नीच, संकीर्णता और भेदभाव की भावना का अंत होता है।
  • यह विचार सार्वभौमिक भ्रातृत्व और मानवता की समानता को स्थापित करता है।

(ख) आध्यात्मिक जीवन के लिए दिशा-निर्देशक

  • अद्वैत वेदांत आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करके साधक को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है।
  • यह मनुष्य को बाह्य भौतिकता से ऊपर उठाकर चेतना और आत्म-चिंतन की ओर ले जाता है।
  • मोक्ष का मार्ग केवल ज्ञानयोग बताकर यह विवेक, ध्यान और आत्मचिंतन को महत्व देता है।

(ग) धार्मिक संकीर्णता का अंत

  • अद्वैत का मूल विचार है कि सभी देवता, धर्म और साधन अंततः उसी एक परम सत्य की ओर ले जाते हैं।
  • इससे धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव की भावना विकसित होती है।

(घ) वैश्विक स्तर पर प्रासंगिकता

  • आधुनिक विज्ञान और आध्यात्मिकता में अद्वैत का प्रभाव दिखता है।
  • यह दर्शन आज भी मानसिक तनाव, सामाजिक संघर्ष और सांस्कृतिक टकराव जैसी समस्याओं के समाधान हेतु एक एकात्म दृष्टि प्रदान करता है।

2. नकारात्मक पक्ष

(क) जगत को मिथ्या मानने से सामाजिक दायित्व की उपेक्षा

  • अद्वैतवाद जगत को मायाऔर मिथ्याकहता है।
  • इस दृष्टि से समाज, परिवार, राजनीति और सेवा जैसे कार्य गौण प्रतीत होते हैं।
  • आलोचकों का मानना है कि यदि जगत मिथ्या है, तो सामाजिक सुधार, राष्ट्र-निर्माण और दायित्व क्यों निभाए जाएँ?
  • यही कारण है कि अद्वैत को कई बार जीवन से पलायनवादी दर्शन कहा गया।

(ख) सामान्य जन के लिए जटिलता

  • अद्वैत का दार्शनिक आधार अत्यंत गूढ़ और बौद्धिक है।
  • आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नताजैसी सूक्ष्म अवधारणाएँ सामान्य व्यक्ति के लिए समझ

समग्र रूप से अद्वैतवाद भारतीय दर्शन की वह उच्चतम धारा है, जिसने केवल अध्यात्म और दर्शन को ही नहीं, बल्कि समाज, धर्म और मानव जीवन की संपूर्ण दृष्टि को गहन दिशा प्रदान की है। अद्वैत का मूल मंत्र सर्वं खल्विदं ब्रह्म यह प्रतिपादन करता है कि सम्पूर्ण जगत, उसकी विविधता और भिन्नता, सब उसी परम सत्य ब्रह्म की अभिव्यक्ति है। इस दृष्टिकोण से न केवल आत्मा और ब्रह्म का भेद मिटता है, बल्कि मानवता के बीच के कृत्रिम विभाजन भी निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं। दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवाद ने ज्ञान, मोक्ष और सत्य की एक गहन व्याख्या प्रस्तुत की। शंकराचार्य ने यह सिद्ध किया कि आत्मा और ब्रह्म अभिन्न हैं और उनका प्रत्यक्ष अनुभव ही जीवन का परम उद्देश्य है। सामाजिक दृष्टि से, यह दर्शन जाति-पाति, ऊँच-नीच और भेदभाव का खंडन करता है और समानता तथा सार्वभौमिक भ्रातृत्व का संदेश देता है। धार्मिक संदर्भ में, अद्वैतवाद संकीर्णताओं को तोड़कर सर्वधर्म समभाव की स्थापना करता है।

आधुनिक युग में भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं हुई है। स्वामी विवेकानंद ने इसे मानवता के लिए प्रेरणादायी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। महात्मा गांधी ने अद्वैत की भावना को सत्य और अहिंसा के माध्यम से सामाजिक जीवन में उतारा। श्री अरविंद और रमण महर्षि ने भी इस दर्शन को आधुनिक मनुष्य की आत्मिक यात्रा का आधार बनाया। यहाँ तक कि आधुनिक विज्ञान, विशेषकर क्वांटम फिजिक्स और चेतना-अध्ययन, अद्वैत की उस धारणा से सहमत दिखाई देते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत परस्पर जुड़ा हुआ और एक ही ऊर्जा-स्रोत का विस्तार है। यद्यपि अद्वैतवाद के कुछ आलोचनात्मक पहलू भी हैं जैसे जगत को मिथ्या मानने से सामाजिक दायित्व की उपेक्षा की आशंका, या इसकी दार्शनिक गहनता के कारण सामान्य जन के लिए कठिनाई फिर भी इसके सकारात्मक पक्ष अधिक गहरे और स्थायी हैं। यह दर्शन मानवता को एकता, समरसता और शांति का मार्ग दिखाता है। आज जब विश्व अनेक संघर्षों, धार्मिक असहिष्णुता और विभाजनों से जूझ रहा है, अद्वैत का यह संदेश अत्यंत प्रासंगिक है। यदि मानवता यह मान ले कि सभी प्राणी एक ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं, तो परस्पर विरोध, भेदभाव और हिंसा स्वतः समाप्त हो जाएँगे। इस प्रकार अद्वैतवाद केवल भारतीय संस्कृति की धरोहर नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर मानव समाज को शांति और सहयोग की दिशा देने वाला सार्वभौमिक दर्शन है।

सन्दर्भ सूची

  • Chatterjee, S. C., & Datta, D. M. (1984). An Introduction to Indian Philosophy. Calcutta University Press.
  • Deutsch, E. (1980). Advaita Vedanta: A Philosophical Reconstruction. University of Hawaii Press.
  • Radhakrishnan, S. (1996). Indian Philosophy (Vol. 2). Oxford University Press.
  • Sharma, C. (1997). A Critical Survey of Indian Philosophy. Motilal Banarsidass.
  • Hiriyanna, M. (2000). Outlines of Indian Philosophy. Motilal Banarsidass.
  • Vivekananda, S. (2015). The Complete Works of Swami Vivekananda. Advaita Ashrama.
  • Sharma, B. N. K. (2000). Philosophy of Advaita Vedanta. Motilal Banarsidass.
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