हिंदी नुक्कड़ नाटकों में चित्रित
मानवीय संवेदना
मनुष्य
प्राणी प्रकृति की एक अनमोल रचना है। प्रकृति ने मनुष्य को बौध्दिक, मानसिक और शारीरिक विकास करने का अवसर प्रदान
किया है। इसलिए मनुष्य अपना सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास भी
प्रकृति के गर्भ से करा लेने में समर्थ है। अपने कार्यों की पूर्ति हेतु मनुष्य ने
समाज की रचना कर अपने मूल अस्तित्व की पहचान कराने में लग गया। मनुष्य का विकास
समय के साथ होता गया। नए-नए आविष्कारों की खोज उसके दिमाग का विकास दशाने लगे। आज
का मनुष्य जो हमारे सामने प्रस्तुत हुआ है, वह बहुत ही प्रतिभाशाली है। साहित्य तथा कलाओं की अभिव्यक्ति द्वारा
मनुष्य ने समय-समय पर अपने प्रतिभा को अभिव्यक्त किया है। साहित्य ने मनुष्य की
भाव-भावनाएँ, विचार, समस्याएँ, सुख-दुख से सबंधित संवेदनाओं का अंकन
बड़ी मार्मिकता से किया है। साहित्य का इतिहास यह केवल साहित्य का इतिहास नहीं है, वह मनुष्य का भी इतिहास है। इस मनुष्य
के चित्रण में उसकी संवेदनाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जिसमें उसके बाह्यविश्व
के साथ अंतर्रविश्व को भी चित्रित किया गया है। विश्व साहित्य की कई विधाएँ आज भी
यह कार्य बड़ी सजगता से संपन्न कर रही है।
हिंदी
साहित्य में मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति प्राचीन रही है। जब से साहित्य
निर्माण हुआ है, तब से लेकर आज तक विषयवस्तु के रुप में
संवेदनाओं का वहन होता रहा है। अब प्रश्न यह है, संवेदना किसे कहते है ? साहित्य किस प्रकार से उनका वहन करता है ? तथा नुक्कड़ नाटक किस प्रकार से मानवीय
संवेदनाओं का वहन कराने में सक्षम है ?
संवेदना शब्द को समझने से पूर्व ‘संवेद’ का अर्थ देखते है। हिंदी विश्वकोष के अनुसार ‘‘संवेद- संज्ञा पु. (सं) अनुभव, ज्ञान, बोध, समझ, वेदना।’’1 अर्थात मनुष्य की ज्ञान ग्रहण
करनेवाली इंद्रियों की अनुभूति। जिसमें मनुष्य की ज्ञानेंद्रिय, बुध्दि तथा हृदय आदि जो मनुष्य के
ज्ञान ग्रहन करनेवाले अवयव है। उनसे संबंधित है।
‘संवेद’ से आगे ‘संवेदन’ का अर्थ इस प्रकार दिया गया है- ‘‘किसी बाह्य या आन्तरिक प्रभाव से इन्द्रियों और उससे सम्बन्धित
स्नायु प्रणाली की उत्तेजना से उत्पन्न होनेवाला अनुभव।’’2 अर्थात मनुष्य की ज्ञान ग्रहण
करनेवाली शरीर की प्रणाली जो मनुष्य को ज्ञान कराती है। वैसे, संवेदन यह शब्द मानशास्त्र से अधिक
सम्बन्धित तथा विशेष अर्थ के लिए प्रयोग में लाया जाता है। ज्ञानेंद्रियों द्वारा
प्रथमता जो ज्ञान होता है,
उसे वेदन और
प्रतिक्रिया स्वरुप मनुष्य में होनेवाली क्रिया को संवेदन कहा जाता है। मनुष्य
अपने पाँच ज्ञानेंद्रियों से बाह्य वेदन ग्रहण करता है और संवेदना के वहन में
प्रतिक्रिया के रुप में विचार, भाव
तथा कृति को अभिव्यक्त करता है।
संवेदना को अंग्रेजी में Sensitivity कहा जाता है। Sensitivity का अर्थ Compact
Oxford Refrence Dictionary के अनुसार दिया है- ‘‘a persons feeling which
Might be easily offended or hurt’’3 अर्थात व्यक्ति की उन अनुभूतियों का सहज वहन जो हृदय को प्रभावीत या
अपमानित करती है। इस अर्थ में मनुष्य के हृदय की सुख-दुख की अनुभूतियों को अधिक
महत्व दिया गया है।
हिंदी
विश्वकोष के अनुसार संवेदना का अर्थ है- ‘‘संवेदनाः संज्ञा, स्त्री, (सं), सुख दुखादि की प्रतीति या अनुभूति।’’4 इस अर्थ के आधार पर कहा जाएगा कि एक व्यक्ति या समुह के सुख-दुख, अच्छी-बुरी अनुभूतियों को दूसरे
व्यक्ति के ह्दय ने भी अनुभूत करना। इस अर्थ में संवेदना की व्यापकता अधिक स्पष्ट
हो जाती है।
संवेदना को इस प्रकार से भी पारिभाषित
किया है- ‘‘1. अनुभूति, अनुभव 2. मन में होनेवाला बोध 3. किसी के शोक, दुख कष्ट या हानि को देखकर मन में
उत्पन्न वेदना, दुख या सहानुभूति 4. दूसरे की वेदना से उत्पन्न वेदना।’’5
मानवमूल्य परक शब्दावली विश्वकोष के
अनुसार संवेदना का अर्थ है- ‘‘( सम्
विद् ज्ञाने = ल्युट्+टाप् संवेदना) सं (स्त्री)
यह शब्द ‘विद’ धातु में ‘सम्’ उपसर्ग और समान भाव से, बराबरी से, जाना या महसूस किया जाए) उसी भाव को
संवेदना कहते है। जैसे, यदि किसी को सुख या दुःख की अनुभूति हो, तो यही संवेदना की अनुभूति है।’’6 अर्थात एक व्यक्ति की अनुभूति दूसरे
व्यक्ति में निर्माण होना संवेदना कहा जाएगा। साहित्यकार अपने साहित्य के माध्यम
से अनुभूतिओं का वहन करता है। इसलिए पाठक को साहित्य कृतियों पर विश्वास है।
क्योंकि कवि या लेखक के हृदय में जो विचार, भाव, भावनाएँ निर्माण होती है। वह अन्य
लोगों के हृदय में भी विद्यमान रहती है। उनका वहन ही संवेदना कहलाता है। अब प्रश्न
यह है कि किसके संवेदनाओं का वहन होता है ? तो संवेदनाओं का वहन 1. लेखक 2. कृति को प्रस्तुतकर्ता/अभिनेता
3. पाठक आदि इनकी संवेदनाओं का वहन
साहित्य के माध्यम से होता है।
समाज
और मनुष्य का विचार करें तो मनुष्य अपने स्वभाव, अभिव्यक्ति,
विचारधारा, रीति-रिवाज, परंपरा, रहन-सहन, संस्कृति आदियों के प्रति बड़ा संवेदनशील
रहा है। हर समय उसका प्रयत्न रहता है कि
वह अपने प्राकृतिक अधिकारों के साथ अपना जीवन ज्ञापित करें। परंतु अपने व्यवहार के
लिए जो समाज की रचना उसने बनाई थी उसमें कुछ स्वाभाविक कमियाँ भी रह गई। समाज का
विकास भी हुआ लेकिन मानव-मानव में बहुत से भेद बने रहें और इन भेद-भावों के कारण
मनुष्य की उन्नति में बाधा पहुँचती रहीं है। जब से मनुष्य समाज बना है, तब से आज तक समय-समय पर उसे अपने ही
जीवन को लेकर संघर्ष करना पड़ा है। इस संघर्ष यात्राओं में उसकी मानवीय संवेदनाओं
को कई आघातों को गुजरना पड़ा है। आधुनिक युग में सबसे अधिक संघर्ष का विषय मानवीय
संवेदनाओं का रहा है। अध्ययन की दृष्टि से मानवीय संवेदनाओं को इन अंषों में रखा
जा सकता है-
1. ज्ञानात्मक संवेदना
2. मनोवैज्ञानिक संवेदना
3. सामाजिक संवेदना
4. राजनीतिक संवेदना
5. आर्थिक संवेदना
6. धार्मिक संवेदना
7. सांस्कृतिक संवेदना
इन आधारों पर मानवीय संवेदनाओं का
सूक्ष्म अंकन किया जा सकता है। इस में ज्ञानात्मक तथा मनोवैज्ञानिक संवेदना को
प्रमुखता देते हुए अन्य संवेदनाओं को गौण रुप से विश्लेषित किया जा सकता है। आज भी विश्व के सभी साहित्य में कम अधिक मात्रा में यह संवेदनाएँ अभिव्यक्त हो रही है। आधुनिक हिंदी साहित्य विधाओं में
नुक्कड़ नाटक विधा ने अपने प्रकृति नुसार मानवीय संवेदनाओं का अंकन बड़ी मार्मिकता
से किया हैं। नुक्कड़ नाटक का अर्थ है- बिना तामझाम के आसानी से लोगों के सामने
खेले जानेवाला नाटक। डॉ गिरीराजशरण
अग्रवाल ने नुक्कड़ नाटक की परिभाषा इस प्रकार से की है-‘‘जिन नाटकों को हम नुक्कड़़ नाटकों का
नाम देते हैं, वे सर्वप्रथम तो समस्त रंगमंचीय
ताम-झाम और साज सज्जा से मुक्त होते हैं। साथ ही उनकी भाषा सरल तथा आम लोगों के
सांस्कृतिक स्तर से जुड़ी होती है, तीसरे उनमें पूरा बल संवाद और अभिनय पर दिया जाता है, दृश्य पर नहीं अत्यधिक संक्षेप में
कहना चाहें तो हम यह भी कह सकते हैं कि नुक्कड़़ नाटक भारतीय जनता की सामाजिक एवं
वास्तविक भावनाओं की अभिव्यक्ति भर हैं।’’7 नुक्कड़ नाटकों ने यथार्थ के साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षणिक तथा अन्य समस्याओं से सम्बन्धित मानवीय संवेदनाओं का चित्रण
किया है। जिसके केंद्र में मनुष्य की सुख-दुख की भावनाएँ ही प्रमुख रही हैं।
मनुष्य के जीवन से जुड़ी समस्याओं में जाति व्यवस्था का उत्पीड़न, नारी उत्पीड़न, दहेज प्रथा, भ्रुण हत्या, युवा विद्रोह, वर्ग विषमता, मूल्यहीनता, निर्धनता, बेरोजगारी, रिश्वतखोरी, मँहगाई, भ्रष्टाचार,
प्रांतवाद, भाषावाद, सांप्रदायिकता, दंगे, हिंसक हमले, श्रध्दा-अंधश्रध्दा, सांस्कृतिक शोषण आदि के माध्यम से
मनुष्य की सुख-दुख की संवेदनाओं को नुक्कड़ नाटकों ने चित्रित किया है। जैसे, जनम द्वारा प्रस्तुत ‘औरत’ नुक्कड़ नाटक में भारतीस स्त्री की विवषता तथा उत्पीड़न को चित्रित
किया है। औरत को भारतीय संस्कृति ने सम्मान दिया है, लेकिन उस औरत की प्रताड़ना यही समाज करता है। बेटी, बहु, पत्नी, माँ और औरत इन अलग-अलग रूपों में उसके
साथ व्यवहार करने का तरीका भी अलग होता है। उस औरत के भाव-भावनाये, विचारों को अनदेखा किया जाता है। उसकी
यातनाओं का कहीं अंत नहीं होता। जैसे,
‘‘अभिनेत्री : मैं एक माँ
एक बहन,
एक बेटी
एक अच्छी पत्नी
एक औरत हूँ
अभिनेता-1 : एक औरत जो न जाने कबसे
नंगे पांव रेगिस्तानों की धधकती बालू में
भागती रही है
अभिनेत्री : मैं सुदूर उत्तर के गावों से आई हूँ
अभिनेता-2 : एक औरत जो न जाने कबसे
धान के खेतों और चाय के बागानों में
अपनी ताकत से ज्यादा मेहनत करती आई है।’’8
औरत
की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? यहाँ का वातावरण या लोगों की मानसिकता नुक्कड़ नाटकों ने ऐसे प्रश्नों को लोगों के सामने उपस्थित किया है। औरत के संवेदनाओं को उनकी समस्यों के
माध्यम से अभिव्यक्त किया है। राजेश कुमार ने अपने नुक्कड़ नाटक ‘भ्रष्टाचार का अचार’ में भारतीय संस्कृति को किस प्रकार
नष्ट किया जा रहा है तथा संस्कृति को मिटाने की शुरूआत हमारे नेताओं ने ही किस
प्रकार की है, इसका चित्रण किया है। जैसे,
‘‘एक
: हमें पता है, संस्कृति के बहाने आप क्या कर रहे हैं ?
दो : हमें पता है, संस्कृति के बहाने आप धार्मिक उन्माद
फैला रहे हैं।
तीन : हमें पता है, संस्कृति के बहाने जात-पाँत भड़का रहे
हैं।
चार : हमें पता है, संस्कृति के बहाने राजनीति की गोटी फिट
कर रहे हैं।
मंत्री : चुप करो! मर्यादा और
परंपरा के नाम पर तुम संस्कृति की खिड़कियाँ बंद करना चाहते हो? अविरल बहनेवाली धाराएँ विरुध्द करना चाहते हो ? खोलो, खोलो ये खिड़कियाँ। पश्चिमी हवाएँ भी आने दो .....’’9
संस्कृति
के नाम पर हमारे नेता ही राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक संवेदनाओं को कुरेदने का कार्य कर रहे है।
संस्कृति के नाम पर धर्म तथा जाँति-पाँति के नाम पर अपने लिए राजनीति का मैदान बनाते
है। आम लोगों की भावनाओं को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते है।
भ्रष्ट नीति तथा भ्रष्ट नेताओं के कारण ही देष का एक बड़ा वर्ग बेरोजगारी की
समस्या से ग्रस्त है। पढ़ लिखकर नौकरी के लिए प्रयास करनेवाले लोगों को कोई रोजगार
नहीं मिलता। उन व्यक्तियों के सामने हर जगह जाकर याचनाएँ करने की नौबत आ जाती है, इस युवा संवेदनओं को भी नुक्कड़ नाटकों
ने अभिव्यक्त किया है। वह इस प्रकार-
‘‘रामेश्वर
: मैं रामेष्वर दयाल।
सूत्रधार : एक अभागा बेकार।
आम आदमी की संतान। माँ-बाप का इकलौता
सहारा।
रामेश्वर : स्कूल गया, कालेज गया पढ़ा लिखा दिन रात, लेकिन आज हूँ कई
बरसों से
बेरोजगार।
सूत्रधार : राहों के गर्द
फाँकता, दरवाजों को खटखटाता, अर्जियाँ लिखता,
याचनाएँ करता-
रामेश्वर : हर जगह से लौटा
हूँ मायूस।
सूत्रधार : कौन है इसका
जिम्मेदार?’’10
बेरोजगारी
के लिए जिम्मेदार कौन है ?
तो इस प्रश्न का
जवाब देश की राजनीति तथा शिक्षा नीति अच्छी तरह से दे सकते है। देश को चलानेवाले
भ्रष्ट नेताओं के राजनीति को सामने लाने का कार्य ‘रँगा सियार’
नामक नुक्कड़
नाटक ने किया है। इस नाटक ने सभी भारतवासियों के संवेदना को अभिव्यक्त किया है।
जैसे,
‘‘जोकर : राष्ट्रीय एकता का पाठ पढ़ाया, आतंकवाद का भूत बनाया,
दूर गरीबी करने को ठाना, और गरीबी खूब बढ़ाया,
बोलो कौन ?
सब : कौन ? कौन ? कौन ?
जोकर : खादी कुरता, गांधी टोपी, संसद् ही है उसकी कोठी
कहता अपने को गरीब का नेता, पर सेठों से रिश्ता-नाता
नहीं गरीबों से कोई सरोकार,
रँगा सियार
बूझे ?
(सब एक साथ चिल्ला पड़ते हैं।)
सब : हाँ- हाँ
जान गया भाई!
पहचान गया रे, पहचान गया
अपने नेता को पहचान गया।’’11
इस
प्रकार से हिंदी नुक्कड़ नाटकों में राजनीतिक संवेदनाओं को अभिव्यक्त किया है।
नुक्कड़ नाटकों का निर्माण ही आम लोगों के दुखों, परेशानियों,
समस्याओं को बया
करना है। इन नाटकों का उद्देश्य ही आम जनता है तथा इनकी संवेदनाओं का चित्रण है।
जैसे ‘सबसे सस्ता गोस्त’ नुक्कड़ नाटक में मनुष्य का गोष्त कितना सस्ता हो गया है, उसके अधिकार उसका अस्तित्व ही दूसरों
से कम रह गया है। इस नाटक का व्यंग्य तो मनुष्य को मनुष्य के लिए सोचने पर मजबूर
कर देता है। मनुष्य ही नहीं रहा तो संवेदनाओं का क्या अर्थ है ? अन्य नुक्कड़ नाटकों में रमेश उपाध्याय
का नाटक ‘राजा की रसोई’ में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई धर्मों के लोगों में निर्माण की
गई सांप्रदायिकता का चित्रण किया है। शिवराम के ‘जनता पागल हो गयी है’ नुक्कड़ नाटक में बेबस जनता का चित्रण किया गया है। अपने अधिकारों के
लिए लढने वाले लोगों को गोलियों से मारा जाना कहाँ तक सही है। असगर वजाहत के
नुक्कड़ नाटक ‘आग’ में दहेज प्रथा का चित्रण किया है। इस नाटक द्वारा शादी में बहुत
सारा दहेज मिलने पर भी पत्नी से प्रेम नहीं किया जाता बल्कि उसे जलाने कि कोशिश की
जाती है ताकि दूसरे शादी में फिर दहेज लिया जा सके इस बुरी मानसिकता तथा नारी
उत्पीड़न को चित्रित किया है। मनुष्य की पशुवृत्ति के कारण समाज और आम व्यक्तिओं
की हानि हो रही है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को जीने नहीं देता इस का यह उदाहरण ही
है। यहाँ अन्याय से पीडि़त व्यक्तियों के संवेदनाओं का चित्रण लेखक द्वारा किया
गया है। जननाट्य मंच द्वारा प्रस्तुत ‘आया चुनाव’ नुक्कड़ नाटक में मुर्दा अपने बेटे के
लिए रहने को घर, खाने को अनाज, पहनने को कपडा, मरने के बाद चिता माँगता है। मनुष्य का
जन्म समाप्त हो जाता है, लेकिन उसकी संघर्ष यात्रा कभी समाप्त
नहीं होती है। मनुष्य बनकर तो वह जन्म लेता है परंतु मनुष्य बनकर जी नहीं सकता।
ऐसी वेदनाओं को लेकर लिखे गए नुक्कड़ नाटकों की प्रासंगिकता आज अधिक है। इनमें
वर्णित प्रसंगो से मनुष्य का केवल चित्रण नहीं है, सच्ची अनुभूतिओं को दर्शाने का कार्य भी हुआ है। हिंदी नुक्कड़ नाटक
लेखकों तथा प्रसार संस्थाओं में असगर वजाहत, सफदर, रमेश उपाध्याय, राजेश कुमार, शिवराम, स्वयं प्रकाश , दया प्रकाश सिंन्हा, गुरूशरण सिंह,
गिरिराजशरण
अग्रवाल, चंद्रेश जन नाट्य मंच, निषांत नाट्य मंच इन के द्वारा लिखित नुक्कड़ नाटकों में मानवीय
संवेदनाओं का चित्रण हुआ है। इनके प्रमुख नुक्कड़ नाटक इस प्रकार से है- औरत, राजा का बाजा,
काला कानून, वीर जाग जरा, अपहरण भाईचारे का, हल्लाबोल, रोशनी, जनतंत्र के मुर्गे, हमें
बोलने दो, भ्रष्टाचार का आचार, गधा पुराण, पोटा मेरा नाम, सबसे सस्ता गोष्त, जनता डॉक्टर है, देश आगे बढाओं, हरिजन दहन, हम सब पागल है, आदमी आदमी सब बराबर, सवा सेर गेहुँ राजा की रसोई, गिरगिट, रंग सियार, बीस बीघा जमीन, घोटाला इतिहास, चैदह दिन की हवालात आदि नुक्कड़ नाटकों
द्वारा समाज की समस्याओं और मनुष्य की संवेदनाओं का चित्रण किया है।
निष्कर्ष
रुप से कह सकते है कि अन्य साहित्य विधाओं जैसे ही हिंदी नुक्कड़ नाटक भी मनुष्य
की संवेदनाओं को प्रकट करने का माध्यम बने है। मनुष्य जीवन को नया अर्थ प्रदान
करने में इन नाटकों ने सहयोग दिया है। जीवन में उपस्थित होनेवाली समस्याओं से
संघर्ष करने की प्रेरणा इन नुक्कड़ नाटकों ने मनुष्य को दी है। मनुष्य को मनुष्य
बन जीवन जीने की प्रेरणा यह नाटक दे रहे है। आम आदमी को अपने अधिकार प्राप्त कराने
के लिए यह नुक्कड़ नाटक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मानवीय संवेदनाओं में आगे
बढ़ पर्यावरण की रक्षा हेतु पर्यावरण संवेदना नाम से साहित्य के क्षेत्र में विमर्श
की आवशकता बन पड़ी है। इस प्रकार मनुष्य की सच्ची संवेदनाओं के अनुभूति और एहसास
को ही मानव धर्म कहा जाएगा।
संदर्भ ग्रंथः
1. हिंदी विश्व कोष भाग-28, अर्जुन पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली, पृ. क्र. 10038
2. वही
3. Catherine
soanes, Compact Oxford Refrence Dictionary, Oxford uni. Press, page
no,
762
4. हिंदी विश्वकोष, भाग-28, अर्जुन पब्लिषिंग हाऊस, नई दिल्ली, पृ. क्र. 10038
6. मानव-मूल्य-परक शब्दावली विश्वकोश, भारतीय संस्कृति संस्थान, चंडीगढ (रजि) स्वरुप
एण्ड सन्स, नयी दिल्ली-110002 पृ. क्र. 1881
7. डॉ गिरीराजशरण अग्रवाल, ग्यारह नुक्कड़़ नाटक, डायमंड बुक्स प्रकाशन, नई दिल्ली पृ
क्र. 11
8. जनम, सरकश अफसाने,
जनम के चुनींदा
नुक्कड़ नाटक, जन नाट्य मंच, दिल्ली, पृ. क्र.
32, 33
9. राजेश कुमार, भ्रष्टाचार का आचार, प्रकाशन विद्या विहार, नई दिल्ली, पृ क्र. 42
10. सफदर, सफदर हाशमी का व्यक्तित्व और कृतित्व, राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली, पृ. क्र.
141
11. राजेश कुमार, पाँच नुक्कड़ नाटक, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, पृ क्र. 86
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