बंड्या पहाड़ी की दुर्गम यात्रा
- डॉ. जगदीश आर. परदेशी
सुबह का समय था; हम चारों दोस्त मेरे ही गांव अमरापुर हट्टी में पहुंच गए थे। इस बार हमने यात्रा के लिए बंड्या इस पहाडी का चयन किया था। घड़ी में 6 बज रहे थे, पर अभी भी घना कोहरा और अंधेरा छाया हुआ था।आज हमें प्रसिद्ध धोडप पहाड़ के बगल में स्थित बंड्या पहाड़ी पर चढ़ाई करनी थी। गांव में पहुंचते ही हमने सब तैयारी की और बंड्या पहाड़ी की तरफ चल पड़े। सुबह का मौसम बड़ा सुहाना था और ठंडी हवा चल रही थी। पानी का बांध लबालब भरा हुआ था तथा इस बांध से मिलनेवाली नदी बह रही थी। पास में ही शनि महाराज का मंदिर हैं, जिनके दर्शन लेते हुए हम आगे बढ़ गए। सबसे पहले हमने जिस मार्ग का चयन किया था, वह मार्ग आसान था। इस मार्ग में बड़े-बड़े आम, नीम, साग तथा चंदन के पेड़ भी मौजूद हैं। सुबह का समय था, पंछियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी, साथ में सुमधुर कानों को भाने वाली मोर की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी। हमने खेतों के बांधों से होते हुए पहाड़ी की चढ़ाई शुरू की। इस चढ़ाई में जैसे-जैसे हम ऊपर बढ़ते गए वैसे-वैसे गर्मी महसूस होने लगी क्योंकि पहले दिन खूब सारी बारिश हुई थी। उमस के कारण चढ़ाई करते वक्त थकान महसूस होने लगी। पर हम रुके नहीं, चलते ही रहे।
मुझे उस वक्त भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर अब्दुल कलाम जी की कुछ पंक्तियां याद आ गई। उनके विचार हैं कि पहाड़ी पर चढ़ने के लिए जितनी शक्ति लगती है, उतनी ही शक्ति अपने जीवन में ऊंचा उठने के लिए लगती है। अब यह पंक्तियां जीवन का सच्चा अनुभव महसूस करा रही थी। धीरे-धीरे वातावरण में अधिक उमस पैदा होती गई। हम पसीने से तरबतर हो रहे थे। चढ़ाई करते वक़्त सास फूल रही थीं। धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए हमने पहले मुश्किल और बाद में आसान रास्ता पुरा किया था। कुछ पल के लिये हम रुक गए। पर यहाँ से दिखने वाला नजारा कुछ और ही था। सामने जो खाई बनी थी उसमें कई प्रकार के पेड़ पौधों तथा बेलायों की झाड़ियां बनी थी। एक छोटा सा झरना बह रहा था, जिसकी आवाज़ सुनाई दे रही थीं पर वह झाड़ियों में छिपा सा गया था। जैसे, अच्छा कर्म करने वाले सामने नहीं दिखाई पड़ते उन्हें ढूंढना पड़ता हैं। इस स्थान से एक और धोडप पहाड़ की तीव्र ढलान वाली चट्टान दिखाई दे रही थी जो आश्चर्यचकित कराने वाली थी क्योंकि पहाड़ आगे की ओर से देखते समय जितनी सशक्त और मजबूत दिखाई देता है, उतनी इस कोनेसे नहीं दिखाई देती। दूसरी ओर देखा तो हमें 4-5 पहाड़ों की कतार दिखाई दी। हमारे सामने दिखाई देने वाली रवाल्या तथा जवाल्या नामक दो पहाड़ों की चढ़ाई हमें करनी थी। इस पहाड़ी को दुरसे
देखनेवाले बहुत सारे लोग थे परन्तु पहाड़ी के बारे में बतानेवाले नहीं थे इसलिए इस संकल्प से ही हम यहां आए थे। हमें यहां से हमारा संकल्प पूरा होता हुआ दिखाई दे रहा था। एक दुसरे से गपशप करते
हुवे हम आगे बढ़ते गए। आगे समतल मैदान था यह मैदान क्रिकेट के दो बड़े ग्राउंड इतना बड़ा है। काली मिट्टी और हरी घास ने हमारा मन मोह लिया। हमने तुरंत अपनी बैग और अन्य सामान रख दिया और उस खुले मैदान में कूद पड़े।
ऊंची-ऊंची छलांग लगाई तथा जोर-जोर से आवाज दी। पूरे हफ्ते भर की जो थकान थी वह दूर होती रही। पूरा बदन उछल-कूद से प्रफुल्लित हो रहा था, कई सारी तस्वीरें हमने उस वक्त खिंचाई इसके बाद आगे बढ़े तो उस पहाड़ी पर कई सारे झरने बह रहे थे। इन झरनों से हमने पानी पिया। पानी पीने का तरीका बिल्कुल ही पशुओं के भांति रहा, जिसमें हमने झुक कर मुंह से पानी पिया। यहां से ही हमारे बहस का विषय रहा- पानी! कितना शुद्ध पानीआज हमने पिया। मिनरल वाटर और प्राकृतिक झरनों में तुलना आरंभ हो गई। डॉ. खांडबहाले सर ने बताया कि झरनों में बहने वाला पानी आयुर्वेदिक होता है। (खांडबहाले सर वनस्पति शास्त्र विषय के अध्यापक हैं) उन्होंने और गहराई से इस बात को बताया कि मनुष्य के शरीर के लिए आवश्यक
प्रोटीन धातु प्राकृतिक झरनों में पाए जाते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि पहाड़ों पर उगने वाले पेड़ पौधों की जड़ों में जो औषधीय गुण होते हैं वह पानी के साथ बहकर आते हैं, इसलिए यह पानी स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है। वैसे, खांडबहाले सर, डॉ. एन. डी. गायकवाड तथा डॉ वानखेडे सर यह तीनों विगत ७-८ वर्षो से हर रविवार के दिन किसी ना किसी पहाड़ी पर जाते हैं और यह उपक्रम आज भी जारी है। हम आगे बढ़े तो हमें बड़े-बड़े पेड़ दिखाई दिए। जिनमें प्रमुखता से आम,जामुन, बेरी, सिरस आदि के पेड़ अधिक थे। मैंने बचपन से ही इन पहाड़ों से गाव में बेचने आनेवाले आमों के बारे में सुना था। बंड्या पहाड़ी पर के आमों की खासियत यह है- वह बड़े मीठे और सुगंधी होते हैं। आज कई दिनों के बाद उस क्षेत्र की यात्रा करने का मौका मुझे मिला था।
आगे बढ़े तो हमें 6-7 झोपड़ियां दिखाई दी। इस निर्जन जंगल में यह झोपड़ियां बड़ी उत्सुकता बढ़ाने वाली थी। आज 21 वीं शताब्दी में दुनिया ने विज्ञान के आधार पर प्रगति कर ली है। पर आज इस दुनिया के सामने यह झोपड़ियां तथा उनमें रहने वाले लोग अपने देश की विरासत को भी बयां कर रहे थे। हम धीरे-धीरे इन झोपड़ियों के पास चले गए वहां पर 2-4 कुत्ते भौंक रहे थे साथ में कुछ बकरियां बैठी थी और तीतर और कुछ पंछी भी दिखाई दिए। भैसे,गाये जंगल में घूम रही थी और उनके बछड़े बाड में बंधे हुए थे। हमें देख कर झोपडियों से छोटे-छोटे बच्चे दौड़ पड़े और हमारे नजदीक आकर
खड़े हो गये। हमने
एक- दो व्यक्तियों से पूछताछ की आप यहां क्यों रहते हैं? उन्होंने बताया हमारा व्यवसाय ही पशुपालन है। जब तक पानी और चारा इस पहाड़ी पर उपलब्ध रहता है, हमारी गाये और भैंसे यही पर रहती है। हम गाय और भैंसों से दूध निकालकर खवा (मावा) बनाते हैं। पहाड़ी के नीचे जो गांव है, वहां जाकर उसे बेच देते हैं और सरकार की ओर से इस गांव से गुजरने वाली बस में वह रख दिया जाता है, जो आगे चलकर नासिक पहुंच जाता है। फिर क्या हमारे भीतर मावा खाने की इच्छा जाग गई। हमने प्रत्यक्ष रुप से मावा बनाते हुए देखा, जिसमें एक बहुत बड़ी सी कढ़ाई रखी हुई थी; जिस में दूध डालकर उसे उबाला जा रहा था। यह दूध तब तक उबाला जाता है, जब तक उस दूध से पानी का अंश बाहर न हो जाए। कहा जाता है 1 किलो मावा बनाने के लिए 4 लीटर दूध की आवश्यकता होती है। इस प्रकार वह हर दिन ८- १० किलो मावा बना लेते हैं। हमने जैसे ही मावा खाने की इच्छा प्रकट की अंबेडकर नामक व्यक्ति हमारे लिए दौड़कर शक्कर और मावा लेकर आया। वह शुद्ध मावा प्रथम बार खाकर हमारा मन तृप्त हो गया था। कुछ हमने अपने घर के लिए भी ले लिया।
सच में वहां पर जो प्राकृतिक सौंदर्य था; वह अद्भुत था। उसमें निर्माण होने वाला यह मावा भी गजब का था। शायद मावे की स्वाधिष्ठता इस जंगल में उपस्थित चक्रवती नामक मुलायम और सोंधी सुगंधी घास रही होगी। पूरे पहाड़ पर यह पीले पत्ते और मुंगेर की घास खास तरह से दिखाई दे रही थी। हम उस समतल पहाड़ी पर घूम रहे थे, उस पहाड़ से ही हमें आगे रावल्या-जावल्या नामक पहाडियों पर जाना था। आगे बढ़ने का रास्ता आसान नहीं था जो रास्ता हमें बताया गया, उस रास्ते से अगर हम जाते तो शाम हो जाती है। इसलिए हमने खुद नया रास्ता खोजने की कोशिश की लेकिन दोपहर के ३ बजे होंगे और आसमान पर
काले बादल मंडरा रहे थे। धुप बढ़ रही थी, बदन भी पसीने से तरबतर हो रहा था। काटीली झाड़ियों से रास्ता खोजते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। हमें यह सब पहाड़ एक कतार में दिखाई दिए थे, इसलिए हम यह समझ बैठे कि यह आसान रास्ता होगा लेकिन वह हमारे लिए आसान नहीं था, बल्कि और चुनौतीपूर्ण था।
पहाड़ी के एक कोने में जाकर इस पहाड़ से उस पहाड़ पर जाने का प्रयास हमने किया। लेकिन वह कई की ओर जानेवाली जगह थी। उस ढलान से उतरना खतरे से खाली नहीं था। अब वापस जाए और आए हुए मार्ग से जाए तो और 6-7 घंटे हमें लग जाएगे। अगर हम इस छोटी सी जगह से धीरे-धीरे उतर जाए जो की कठिन मार्ग था, तो हमारा समय बच सकता था। फिर हम भी तीव्र ढलान तथा खाई से डरने वाले नहीं थे, धीरे-धीरे करते हुए एक के बाद एक बैठकर उस चट्टान पर कभी पैर रखकर कभी हाथ से पकड़ कर कभी धीरे-धीरे खिसक कर हम नीचे उतर गए, जोकि कठिन तथा
नया मार्ग था। समय बहुत हो गया था इसलिए साथ में लाए हुए टिफिन खोलकर उस पथरीले मार्ग
में ही भोजन किया।
हम जिस चट्टान पर बैठे थे वहां से सामने का दृश्य अद्भुत था, हरे-भरे पेड़ प्राकृतिक शानदार दोपहर तथा सब और फैली शांति बहुत अच्छी लग रही थी। कई देर तक खाना खा रहे थे और सामने का दृश्य देख रहे थे। बाद में हमने वापसी की तैयारी की फिर से एक नया रास्ता हमने खोज लिया उस तीव्र खाई से हम नीचे उतरते गए जिसमें काटीली झाड़ियां तथा कंधे तक बढ़ी घास में कटीले पौधे चुभ रहे थे। फिर भी हम धीरे-धीरे पहाड़ी से नीचे उतर कर इंदिरा नगर नाम के गांव में उतर आए वहां से पहचान वाले से लिफ्ट मांग कर वापस अपने गांव हट्टी आ गए। शाम हो गई थी, अपने गाड़ी में बैठ कर करीब 8 बजे हम नासिक पहुंच गए इस प्रकार अद्भुत आनंद देने वाला वह दिन आज भी स्मरण हो आता है तो पूरा शरीर पुलकित हो जाता है।
बहोत खूब सर पुरानी यादें ताजा हो गयी...
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