शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015



धरती का दुख ( Poem- DhartikaDukha)



धरती मां यह दुख नहीं देखा जाता अब
सहा नहीं जाता अब ।।१।।

खिले थे,
प्रकृति के फुल यहॉ
फुलोंकी सुगंध चहू दिशाओं में,
यहॉ अमृत की नदीयॉ बहा करती
पवित्रता थी, उस जल थल में,
शीतलता थी, उस अग्नि में,
यह समंदर की शांत लहरे,
यह आकाश की नीरभ्रता.
यह मानव की हितता
धरती मां यह दुख नहीं देखा जाता अब
सहा नहीं जाता अब ।।२।।

न रहने दिया,
इसमें कोई अपना
बनाई हैं, मानव ने नई प्रकृति
बन गई है बंजर धरती
खिलरहे,
फुलझुठीमुस्कानमें
सह रही हैं,
मां इस दुख को
बेटे बने अपने मतलब के प्यासे
बन गये,
दुश्मन इस मां के
कितना अभागा हैं,
मानव
समझा नहीं मां की ममता
धरती मां यह दुख नहीं देखा जाता अब
सहा नहीं जाता अब ।।३।।
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