धरती का दुख ( Poem- DhartikaDukha)
धरती मां यह दुख नहीं देखा जाता अब
सहा नहीं जाता अब ।।१।।
खिले थे,
प्रकृति के फुल यहॉ
फुलोंकी सुगंध चहू दिशाओं में,
यहॉ अमृत की नदीयॉ बहा करती
पवित्रता थी, उस जल थल में,
शीतलता थी, उस अग्नि में,
यह समंदर की शांत लहरे,
यह आकाश की नीरभ्रता.
यह मानव की हितता
धरती मां यह दुख नहीं देखा जाता अब
सहा नहीं जाता अब ।।२।।
न रहने दिया,
इसमें कोई अपना
बनाई हैं, मानव ने नई प्रकृति
बन गई है बंजर धरती
खिलरहे,
फुलझुठीमुस्कानमें
सह रही हैं,
मां इस दुख को
बेटे बने अपने मतलब के प्यासे
बन गये,
दुश्मन इस मां के
मानव
समझा नहीं मां की ममता
धरती मां यह दुख नहीं देखा जाता अब
सहा नहीं जाता अब ।।३।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें